मंगलवार, 6 नवंबर 2018

यार याद तो बोहोत आती है, वो दीवाली।

बदला ये जमाना, बदले संस्कृति के रंग।
बदला ये तरीका , बदले त्योहारो के ढंग।
बदली इंसानो की प्यार की प्रीत।
बदल गया खुद इंसान।
बदल डाली सारी रीत।
कर रहा है,खुद अपनी मनमानी।
यार,याद तो बोहोत आती है, वो दीवाली।

वो त्योहारो में सबके घर जा कर मिलना।
कुछ तोफो और मिठाई देकर मिलना।
अब कहा खुद की कमाई में मनाती थी।
माँ जब घर मे खुद अपने हाथों से मिठाई बनाती थी।
अब तो लगता है,यह बस हैं एक कहानी।
यार,याद तो बोहोत आती हैं, वो दीवाली।

जब आँगन में बैठ कर कुछ बाते बतियाते थे।
आशिर्वाद लेने बुज़ुर्गो का हम गांव भी जाते थे।
अब नही है, फुरसत अपने अपने काम से।
मिलना तो छोड़ो बात भी नही होती आराम से।
वो दोस्तो के साथ मिलकर पूरा शहर घूम लेते थे।
उस की गल्ली से गुजरकर,उसे रंगोली बनाते भी देख लेते थे।
वो सुंदर सुंदर कल्पनाओ के रूह से वो बनाती है।
फिर पता चला यारो।
वो मुँह ही नही रंगोली भी अच्छा बना लेती है।
तब पूरे मोहल्ले के साथ पटाखे फोड़ते थे।
खुशियो से सब झगड़े भुलाकर दिलो से दिल जोड़ते थे।
अब पटाखे भी फोड़ते है, तो कोई खुशी नही होती।
अब तो वो रौनक घर मे नही होती।

बढ़ रही मंहगाई,महंगे हो गये शृंगार  यारो,इतने में कैसे धूम-धाम से मनाये त्योहार।
पटाखों के धुंये में भी इकरा है।
सरकार भी कह रही है, इसमे खतरा है।
हमारे रास्ते भी कुछ अंधेरे से हो गये।
जब जलाने लगे फुलझड़ी तो, 
हम अकेले से हो गये।
अकेली सी ये दीवाली।
अकेले से ये त्योहार हो गये।
जब घर के बच्चे किसी दूसरे शहर के हो गये।
अब सब ये शृंगार कहानी जैसा नही लगता।
ना कोई अब कोई त्योहार दीवाली जैसा नही लगता।
                           ✍शायर शुभम✍
शुभम देशमुख
जि. भंडारा,महाराष्ट्र
7709721433